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    हौसलों की उङान

    सूबह से ही त्रिशा की माँ घर के हर एक कार्यो को यंत्रचालित सी करती जा रही थी । किन्तु बार-बार उसके मन में बस एक ही प्रश्न आकर खङा हो जाता कि क्या ! आज मेरी बेटी को देने की बारी है अपने डैने ?उसे याद है उसने कोशिश की थी एक दबी आवाज़ में अपनी अजब उङान भरने की पर नहीं भर सकी देर तक परिवार के नाम पर । एक लङकी की कैरियर को परिवार के संस्कार और मार्यादा का हवाला देते हुए कितनी बेरहमी से काट दिया गया था उसके स्वप्निल उङान के डैने को और धकेल दिया गया चुल्हा-चौका /जाता-ढेकी के घेरे में । बेबश…